भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)
दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी
10 अक्टूबर 2013
25 मई का झीरमघाटी हमला और छत्तीसगढ़ विधानसभा के आगामी चुनावों के परिप्रेक्ष्य में मीडिया के विभिन्न प्रतिनिधियों द्वारा कई सवाल पूछे गए। ऐसे कुछ सवालों के भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के सचिव कामरेड रामन्ना ने एक साक्षात्कार के जरिए जवाब दिए हैं। पेश है उसका सार संकलन जिसे हम मीडिया को जारी कर रहे हैं।
प्रश्न - आगामी चुनावों को लेकर आपकी पार्टी क्या नीति अपना रही है?
उत्तर - हमेशा की तरह इस बार भी हम चुनाव बहिष्कार का ही आह्वान कर रहे हैं। क्योंकि हमारा मानना है कि ये चुनाव महज ढोंग है। चुनाव यह तय करने का अवसर है कि शोषक लुटेरांे में से कौन-कौन से सदस्य आगामी पांच सालों तक जनता को लूटेंगे और पीटेंगे। जनता में भी चुनावों को लेकर कोई उत्साह नहीं दिख रहा है। क्योंकि उसे अच्छी तरह पता है कि चुनावों से उसकी जिन्दगी में कोई मूलभूत बदलाव होने वाला नहीं है। सिर्फ कुछ स्थानीय जरूरतों, जाति या धर्म की भावनाओं, पैसों का प्रलोभन, शराब, भय, आतंक के चलते ही आम तौर पर लोग वोट डालते हैं। वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था को सशस्त्र क्रांति के जरिए जड़ से बदलकर एक शोषणविहीन और जनवादी समाज की स्थापना करना हमारा लक्ष्य है। चुनावों के जरिए यह बदलाव संभव नहीं है।
प्रश्न - क्या इस बार का चुनाव बहिष्कार भी हिंसक रहेगा?
उत्तर - यह हमारे कहने या न कहने पर निर्भर नहीं है। हर बार की तरह इस बार भी शोषक सरकारें बड़ी तादाद में सशस्त्र बलों को उतारकर ‘निष्पक्ष’ और ‘स्वतंत्र’ मतदान सुनिश्चित करने के नाम पर व्यापक दमनचक्र चला रही हैं। गांवों पर हमले, तलाशी अभियान, गिरफ्तारियां, मारपीट, फर्जी मुठभेड़ें लगातार जारी हैं। जनता को अपनी आत्मरक्षा के लिए इसका प्रतिरोध करना अनिवार्य है। इसलिए आपके सवाल के जवाब में मैं इतना ही कह सकता हूं कि चुनाव बहिष्कार अभियान को विफल करने के लिए जब सरकार दमनचक्र चलाती है, यानी हिंसात्मक तौर तरीकों पर उतर आती है तो उसका प्रतिरोध भी जरूर होगा।
प्रश्न - मतदान करने वालों की उंगली काट देने की आपकी धमकियां कहां तक उचित हैं?
उत्तर - यह एक कोरी बकवास है कि हमने वोट डालने वालों की उंगली काट देने की धमकी दे रखी है। पिछले 33 सालों से जारी दण्डकारण्य संघर्ष के इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जिसमें हमने इस तरह की धमकी दी हो या फिर किसी पर भौतिक रूप से इस प्रकार का हमला किया हो। यह दरअसल शोषक सरकारों और उसके कार्पोरेट मीडिया का दुष्प्रचार है जोकि हर चुनाव के समय खासतौर पर किया जाता है। हमारा यह अभियान एक राजनीतिक कार्यक्रम है। इसमें जनता को चेतनाबद्ध करने पर ही हमारा मुख्य जोर रहेगा। हमें इस बात में जरा भी विश्वास नहीं है कि किसी राजनीतिक मकसद के लिए लोगों को डरा-धमकाकर गोलबंद किया जा सकता है।
लेकिन इस मुद्दे के दूसरे पहलू पर गौर किया जाना भी जरूरी है। वास्तव में सरकारें खुद ऐसा करती हैं। लोगों को वोट नहीं डालने पर होने वाले बुरे अंजाम के बारे में आतंकिंत किया जाता है। वोट न डालने पर राशन कार्ड जब्त कर लेने, चावल न देने, माओवादी बताकर जेल में डालने, मार डालने आदि धमकियां देना आम है। लेकिन मीडिया में इसकी खबरें कहीं भी नहीं दिखतीं।
प्रश्न - मतदान करना लोगों का एक जनवादी अधिकार है। चुनाव बहिष्कार का नारा देकर क्या आप इस अधिकार का हनन नहीं कर रहे हैं?
उत्तर - जिस प्रकार वोट देना एक जनवादी अधिकार है उसी प्रकार वोट नहीं देना भी। चुनावों का बहिष्कार भी लोगों के जनवादी तरीकों में विरोध जताने का एक स्वरूप है। हम लोगों के किसी अधिकार का हनन नहीं कर रहे हैं बल्कि उनसे यह कह रहे हैं कि वे अपने तमाम अधिकारों को पहचानें और उनका प्रयोग करें। हाल ही में सर्वोच्च अदालत को भी यह फैसला सुनाना पड़ा कि अगर किसी मतदाता को कोई भी उम्मीदवार पसंद न हो तो उसे ‘नन आफ द अबव’ का विकल्प चुनने की व्यवस्था होनी चाहिए। इसका मतलब है अदालतों को भी, जो मौजूदा व्यवस्था का ही अंग हैं, यह स्वीकारना पड़ रहा है कि इस चुनावी प्रक्रिया में लोगों की दिलचस्पी लगातार कम होती जा रही है। इसलिए हम समझते हैं कि चुनाव का बहिष्कार करना भी लोगों का जायज और जनवादी अधिकार है। इतना ही नहीं, वर्तमान संसदीय लोकतंत्र को सिरे से खारिज करने का भी अधिकार जनता को है।
प्रश्न - तो फिर इस संसदीय लोकतंत्र के विकल्प में आप क्या पेश करना चाहेंगे?
उत्तर - हमारा स्पष्ट मत है कि जनता का जनवादी गणतंत्र ही, जिस पर मजदूरों, किसानों, निम्न एवं मध्यम पूंजीपतियों के संयुक्त मोर्चे की हुकूमत हो, एक मात्र और सच्चा विकल्प है। मौजूदा व्यवस्था पर साम्राज्यवादियों, दलाल नौकरशाह पूंजीपतियों और बड़े जमींदारों का नियंत्रण है। यह शोषित और उत्पीड़ित जनता के लिए तानाशाही के अलावा कुछ नहीं है। इसलिए इसे ध्वस्त कर जनता के सच्चे लोकतंत्र का निर्माण करना ही एक मात्र विकल्प है। दशकों से जारी क्रांतिकारी आंदोलन की बदौलत आज दण्डकारण्य समेत देश के कुछ और हिस्सों में जनता की जनवादी सत्ता के अंगांे का निर्माण हो रहा है। दण्डकारण्य में ‘क्रांतिकारी जनताना सरकार’ के नाम से मशहूर इस नई जनसत्ता के अंगों के नेतृत्व में जनता के सच्चे विकास को केन्द्र बिन्दु में रखते हुए कई काम हो रहे हैं। क्रांतिकारी भूमि सुधार, सिंचाई की व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में नए बदलाव हो रहे हैं। हालांकि यह आज अत्यंत प्राथमिक स्तर पर, बहुत ही सीमित क्षेत्रों में मौजूद है, लेकिन यह प्रगतिशील है और बढ़ते क्रम में है। यह उदीयमान व्यवस्था जनता को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने वाली है। यही देशवासियों के सामने मौजूद विकल्प है।
प्रश्न - अलग-अलग चुनावी पार्टियों के प्रति आपका रुख कैसे रहेगा?
उत्तर - इस चुनाव बहिष्कार अभियान में हमारा मुख्य नारा होगा - ‘‘भ्रष्टाचारी, जनविरोधी, देशद्रोही और फासीवादी कांग्रेस और भाजपा को मार भगाओ’’। हम समझते हैं कि देश में साम्राज्यवाद-निर्देशित नवउदार नीतियों को लागू कर देश की असीम प्राकृतिक सम्पदाओं, श्रम शक्ति और तमाम अन्य संसाधनों की कार्पोरेट लूटखसोट में इन्हीं दो पार्टियों की प्रमुख भूमिका है। छत्तीसगढ़ में पहले सलवा जुडूम और अब आपरेशन ग्रीनहंट के नाम से जारी अत्यंत विनाशकारी दमन अभियानों के संचालन में, जिसमें सैकड़ों लोगों की जानें गईं, इन्हीं दो पार्टियों का हाथ रहा। इसलिए हम जनता का आह्वान कर रहे हैं कि इन दोनों पार्टियों के नेताओं को गांवों में कदम रखने मत दें। उन्हें मार भगा दें। जहां तक दूसरी पार्टियों का सवाल है, जैसे कि भाकपा, माकपा, बसपा और गोण्डवाना गणतंत्र पार्टी, छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच आदि - इनके पास भी कोई वैकल्पिक कार्यक्रम नहीं है। ये सभी पार्टियां कमोबेश लुटेरे वर्गों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। वे हमारे क्षेत्रों में आती हैं तो जनता उनका विरोध करेगी।
प्रश्न - पिछले दस सालों में भाजपा शासन का आप कैसे मूल्यांकन करते हैं?
उत्तर - एक शब्द में कहा जाए तो भाजपा शासन दमन और विनाश का पर्याय रहा। 1 नवम्बर 2000 को जब छत्तीसगढ़ प्रदेश का गठन हुआ था तब लोगों ने यह सपना देखा था कि उनके जीवन में कुछ तो बदलाव आएगा। लेकिन आज जब इसके 13 साल पूरे होने को हैं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। शुरूआती तीन वर्षाें में जब कांग्रेस का शासन था राज्य परिवहन निगम का निजीकरण किया गया था। अजीत जोगी सरकार ने शिवनाथ नदी के पानी को एक निजी कम्पनी के हाथों बेच डाला था। क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने के लिए बस्तर में पहली बार अर्द्धसैनिक बलों को उतारा था। उस समय केन्द्र में सत्तारूढ़ एनडीए सरकार ने बाल्को को बेच दिया तो राज्य सरकार ने हायतौबा मचाई थी लेकिन खुद उसने भी राज्य में बड़े व विदेशी पूंजीपतियों का ही हित पोषण किया था। विश्व बैंक की शर्तों का पालन करते हुए सरकारी नौकरियों में भर्ती बंद कर दी थी। जनता में बढ़े असंतोष पर सवार होकर भाजपा ने दिसम्बर 2003 में छत्तीसगढ़ में पहली बार अपनी सरकार बना ली।
विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने जिन नीतियों का विरोध किया था सत्ता में आने के बाद ठीक उन्हीं नीतियों पर अमल कर अपने दोगलेपन का साफ प्रदर्शन किया। अपार खनिज व वन सम्पदाओं से समृद्ध छत्तीसगढ़ में पिछले दस सालों में कार्पोरेट लूटखसोट का नंगा नाच चलता रहा। उसकी औद्योगिक नीति, खनन नीति आदि सभी जन विरोधी ही हैं। देशवासियों के हितों पर कुठाराघात करते हुए उसने दलाल पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए लाल कालीन बिछा दी। कांग्रेस सरकार ने सिर्फ शिवनाथ नदी को बेचा था तो रमन सरकार ने कई अन्य नदियों के पानी को भी बेच डाला। यहां तक कि जांजगीर-चांपा जिले में रोगदा बांध, जिससे नौ सौ एकड़ खेतों को सिंचाई का पानी उपलब्ध हुआ करता था, को भी पाटकर एक निजी कम्पनी को बेचने का ‘श्रेय’ भी रमन सरकार को ही जाता है। धान का कटोरा कहलाने वाले छत्तीसगढ़ में 2000-11 के बीच 14,340 किसानों ने आत्महत्या कर ली। इसी से समझा जा सकता है कि यह सरकार किसानों के लिए कितनी मददगार रही।
2005 में भाजपा ने कांग्रेस के साथ सांठगांठ कर सलवा जुडूम चलाया था। उन्हीं दिनों में उसने टाटा और एस्सार के साथ दो भारी इस्पात संयंत्रों की स्थापना के लिए एमओयू पर दस्तखत किए थे। अब तो यह किसी से छिपी हुई बात नहीं रही कि कार्पोरेट लूटखसोट का रास्ता साफ करने के लिए ही सलवा जुडूम चलाया गया था। उसके बाद आपरेशन ग्रीनहंट के नाम से एक और फासीवादी अध्याय शुरू हुआ। गांव दहन, नरसंहार, बलात्कार, लूटपाट आदि सरकारी सशस्त्र बलों के रोजमर्रा का काम बन गए। रमन सरकार के आदिवासी विरोधी चरित्र को समझने के लिए यह एक उदाहरण भर है।
रमन सरकार कार्पोरेट हितों के सामने नतमस्तक होकर एक तरफ किसानों से जमीनें छीनते हुए दूसरी ओर एक/दो रुपये में किलो चावल देने का ढिंढोरा पीट रही है। भ्रष्टाचार, घोटालों में डूबे रहकर भी विकास की रट लगाते रहना उसके दोगलेपन का साफ सबूत है। कोयला घोटाला, इंदिरा प्रियदर्शिनी बैंक घोटाला, अनाज घोटाला आदि में रमन सरकार खूब बदनाम हुई थी। फिर भी कार्पोरेट मीडिया उसकी ‘स्वच्छ छवि’ का मनगढ़त चित्रण करता रहा है। भाजपा शासन में महिलाओं को कितनी सुरक्षा और इज्जत मिल रही है इसका अंदाजा सोनी सोड़ी, मीना खल्को, झलियामारी कांड आदि उदाहरणों से आसानी से लगाया जा सकता है।
भाजपा सरकार कर्मचारी-विरोधी सरकार के रूप में बदनाम हुई। शिक्षाकर्मियों, वनकर्मियांे, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों, पंचायत सचिवों - लगभग हर तबके ने कई बार आन्दोलन का बिगुल बजाया। सरकार ने हर संघर्ष का जवाब दमन से ही दिया। उनकी जायज मांगों को हर बार ठुकरा ही दिया।
इस प्रकार भाजपा का दस सालों का शासन जनविरोधी, दमनकारी और लूटखोर ही रहा।
प्रश्न - रमन सरकार ‘ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट’, ‘क्रेडिबुल छत्तीसगढ़’ आदि बातें कहकर विकास का दावा कर रही है। आप इसे किस रूप में देखते हैं?
उत्तर - विकास के मामले में रमनसिंह के दावों को खारिज करने के लिए सरकारी आंकड़े ही पर्याप्त हैं। रमन के दावों के विपरीत छत्तीसगढ़ की विकास दर 8 प्रतिशत के आसपास ही रह गई है जो मिजोरम जैसे कई छोटे राज्यों से भी काफी नीचे है। हालांकि विकास दर के आंकड़े यह समझने का पैमाना तो कतई नहीं है कि जनता के जीवन स्तर में कितना विकास हुआ है, फिर भी आंकड़ों के खेल में भी रमन सरकार फिसड्डी साबित हुई है। दरअसल रमन सरकार का ‘विकास’ का नजरिया ही गलत है। मुठ्ठीभर रईसजदों के विकास को वह जनता के विकास के रूप में चित्रित कर रही है। ‘ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट’ दरअसल लुटेरों का मेला था। छत्तीसगढ़ की अनमोल सम्पदाओं को, जिन पर जनता का जायज हक बनता है, की नीलामी के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया था। ‘क्रेडिबुल छत्तीसगढ़’ या ‘विश्वसनीय छत्तीसगढ़’ का नारा कार्पोरेट घरानों के हौसलों को बुलंद करने वाला नारा है, न कि जनता में विश्वास जगाने वाला। इस मेले में जितने भी पूंजीनिवेश के समझौते हुए थे उनसे न छत्तीसगढ़ की गरीबी दूर होने वाली है और न ही बेरोजगारी खत्म होने वाली। यह मंत्रियों और अधिकारियों के जेबें गर्म करने का नायाब हथकंडा भी था।
प्रश्न - आप पर रमनसिंह ‘विकास विरोधी’ का आरोप लगा रहे हैं। इस पर आप क्या कहेंगे?
उत्तर - हां, हम उन मुठ्ठीभर शोषक-लुटेरों के ‘विकास’ के विरोध में ही खड़े हैं, जिनकी सेवा में रमनसिंह पूरी तरह समर्पित हैं। छत्तीसगढ़ की धरती को टाटा, एस्सार, जिन्दल, मित्तल, वेदांता, नेको जयसवाल आदि कार्पोरेट गिद्धों की जागीर बनाने के उनके सपनों को हम कभी पूरा नहीं होने देंगे। अगर इसी का नाम ‘विकास विरोधी’ है तो हम इस आरोप को गर्व से कबूल करेंगे।
प्रश्न - रावघाट परियोजना का आप क्यों विरोध करते हैं, जबकि यह कहा जा रहा है कि इसे चालू नहीं करने पर भिलाई इस्पात संयंत्र को कच्चामाल की कमी पड़ जाएगी?
उत्तर - रावघाट परियोजना का विरोध जनता ने 1990 के दशक की शुरूआत में ही प्रारम्भ किया था। हमारी पार्टी के उस इलाके में पहंुचने से भी पहले से। बाद में हमारी पार्टी ने इस संघर्ष का नेतृत्व किया। जनता का विरोध जायज है क्योंकि इस परियोजना से यहां की जमीनों, जंगलों और नदियों को, कुल मिलाकर यहां के समूचे जनजीवन को भारी खतरा है। यह परियोजना इस क्षेत्र की जनता के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान खड़ी कर देगी। एक व्यापक इलाके में तबाही मचाकर आखिर किन वर्गों का विकास किया जाने वाला है? हमारा मानना है कि भिलाई स्टील प्लांट का कच्चामाल संकट महज एक बहाना है। यहां पर टाटा, नेको जैसी बड़ी कार्पोरेट कम्पनियों की लूटखसोट का खेल शुरू होने वाला है। सार्वजनिक कम्पनी सेल इसका रास्ता साफ करने वाले दलाल का काम कर रही है।
अगर सरकार को किसी सार्वजनिक कम्पनी के हितों की इतनी ही चिंता है तो क्यांे न वह बैलाडीला की खदानों से अनमोल लौह अयस्क का दोहन बंद करवाती? वास्तव में भिलाई स्टील प्लांट को खतरा रावघाट परियोजना के नहीं शुरू होने से नहीं, बल्कि निजीकरण, कम्प्यूटरीकरण, ठेकेदारीकरण आदि मजदूर विरोधी नीतियों से है।
प्रश्न - रमनसिंह एजुकेशन हब, पोटा केबिन, गुजर बसर कॉलेज आदि खोलकर आदिवासी क्षेत्रों में विकास की गंगा बहाने का दावा कर रहे हैं। आप इसे किस रूप में देखते हैं?
उत्तर - शिक्षा के क्षेत्र में कार्पोरेट कम्पनियों की घुसपैठ लगातार बढ़ती जा रही है। गरीब और मध्यम तबकों के छात्रों के लिए शिक्षा के अवसर लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं। शिक्षा के प्रसार की जिम्मेदारी से सरकार अपना हाथ खींच रही है। आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की सुविधाओं का घोर अभाव है। हर तरफ शिक्षकों की कमी है। नियमित शिक्षकों की नियुक्ति कब का बंद हो चुकी है। सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था नहीं है। मध्याह्न भोजन के नाम से बच्चों को घटिया खाना खिलाया जाता है। पर्याप्त भवनों का टोटा है। कई शालाएं आज भी किराए के मकानों में चल रही हैं। सरकारी स्कूलों व कॉलेजों की हालत देखने पर साफ समझा जा सकता है कि सरकार की नीतियां किस कदर छात्र-विरोधी और जन-विरोधी हैं। सच्चाई यह है। लेकिन सरकार एजुकेशन हब वगैरह चंद कदमों की आड़ में उपरोक्त तस्वीर को धुंधला बनाने की कोशिश कर रही है। आदिवासी प्रतिभाओं को अपनी जड़ों से काटकर लुटेरों की सेवा में इस्तेमाल में लाना ही ऐसी योजनाओं का मकसद है।
प्रश्न - खाद्य सुरक्षा योजना को लेकर रमनसिंह यह कह रहे हैं कि इसे लागू करने में छत्तीसगढ़ सबसे आगे है। आप इस पर क्या कहेंगे?
उत्तर - छत्तीसगढ़ में ही नहीं बल्कि पूरे देश में खाद्य सुरक्षा योजना के नाम से सरकारें जनता को बड़े पैमाने पर भरमा रही हैं। सच्चाई यह है कि देशभर में सरकारी गोदामों में लाखों करोड़ टन खाद्यान्न सड़ रहा है और चूहे उसे खाए जा रहे हैं। दूसरी ओर देश के विभिन्न इलाकों में भुखमरी की स्थिति छाई हुई है। इस विडंबना को लेकर कई सालों से देशभर में भारी बहस छिड़ी हुई है। गौरतलब है कि इस पृष्ठभूमि में सर्वोच्च अदालत ने भी एक आदेश में यह कहा था कि गोदामों में सड़ने वाले अनाज को गरीबों में मुफ्त में बांटा जाए। सरकारों ने अपने चुनावी फायदे के मद्देनजर इस योजना को अमलीजामा पहनाना शुरू किया। जाहिर सी बात है कि महीने में 5 या 7 किलो चावल से कोई भी व्यक्ति जिन्दा नहीं रह सकता। इसमें भी भ्रष्टाचार का कितना बोलबाला है इस पर तो मीडिया में भी लगातार खबरें आती रहती हैं। इसलिए रमनसिंह की बहु प्रचारित खाद्य सुरक्षा योजना महज एक लोकलुभावन योजना है। इससे न तो गरीबों की भूख मिट जाएगी न ही किसी को खाद्यान्न की गारंटी मिलेगी।
प्रश्न - और भी कई विकास योजनाएं हैं, जैसे कि मनरेगा आदि। इस पर आप क्या कहेंगे?
उत्तर - मनरेगा को लेकर रमन सरकार चाहे जितना भी ढिंढ़ोरा पीट ले, सच तो यह है कि प्रदेश में 45 प्रतिशत से ज्यादा काम नहीं हुआ है। इसमें भी फर्जी हाजिरी भर कर, झूठे हस्ताक्षर कर, पासबुक में हेराफेरियां कर करोड़ों रुपए का गबन किया जा रहा है। सरपंच, पंचायत सचिव से लेकर कलेक्टर, मंत्री तक सभी इस भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। माना कि अगर यह योजना ढंग से चल भी गई, तब भी यह कैसे मुमकिन है कि एक परिवार में एक सदस्य को साल में महज 150 दिनों का काम मिलने से पूरा परिवार साल भर का खाना मिल जाए?
मुख्यमंत्री के नाम से चलने वाली स्मार्ट कार्ड योजना भी ऐसी ही है। यह कार्पोरेट अस्पतालों को फायदा पहुंचाने वाली योजना भर है। इसमें भी जिस बीमारी के इलाज का जितना खर्च निर्धारित किया गया है उतने में वह संभव ही नहीं है। छोटी-मोटी बीमारियों का थोड़ा-बहुत इलाज करके लोगों की मजबूरी का फायदा उठाकर स्वार्थी नर्सिंगहोम मालिक मालामाल हो रहे हैं।
गौरतलब है कि वो ऐसी योजनाएं जनता पर प्रेम से नहीं, बल्कि उनकी नवउदार नीतियों के खिलाफ जनता में बढ़ते असंतोष को ठण्डा करने के लिए ही ला रहे हैं।
प्रश्न - झीरमघाटी में आप लोगों ने कांग्रेसी नेताओं के काफिले पर हमला क्यों किया? क्या इसे माओवादियों की रणनीति में बदलाव के रूप में देखा जा सकता है?
उत्तर - जैसे कि हमारी कमेटी द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में पहले ही बताया गया था, हमने इस हमले को सलवा जुडूम और आपरेशन ग्रीनहंट के खिलाफ प्रतिशोध के तौर पर अंजाम दिया था। दरअसल यह एक कार्यनीतिक जवाबी हमला था जोकि हमारे आत्मरक्षात्मक युद्ध का हिस्सा है। पहले सलवा जुडूम और अब आपरेशन ग्रीनहंट के नाम से जारी फासीवादी दमन अभियानों में सैकड़ों आदिवासियों की निर्मम हत्या की गई। सैकड़ों गांवों को जला दिया गया। भारी तबाही मचाई गई। इन सबका बदला लेने की कार्रवाई के रूप में ही इस हमले को देखा जाना चाहिए। जहां तक रणनीति में बदलाव का सवाल है, ऐसा कुछ भी नहीं है। इसके पहले भी हमने कई बार लुटेरी राजनीतिक पार्टियों के कुछ प्रतिक्रियावादी नेताओं पर हमले किए थे। यह अपनी किस्म की पहली कार्रवाई तो नहीं है। हालांकि यह एक भारी कार्रवाई थी। ऐतिहासिक भी। खासकर महेन्द्र कर्मा का सफाया किया जाना इस हमले की खास उपलब्धि थी।
प्रश्न - क्या यह लोकतंत्र पर हमला नहीं था?
उत्तर - हम पहले भी कह चुके हैं कि शोषक शासकों को लोकतंत्र का नाम तक लेने का नैतिक अधिकार नहीं है। जिस सलवा जुडूम को सुप्रीम कोर्ट तक ने अवैध ठहराया था, जिसके बारे में ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा तैयार मसौदा रिपोर्ट में यह कहा गया था कि टाटा, एस्सार जैसे कार्पोरेट घरानों के हित में ही इसे रचाया गया, ऐसे फासीवादी सलवा जुडूम के सरगना को निशाना बनाना लोकतंत्र पर हमला कतई नहीं हो सकता। इसे लोकतंत्र पर हमला बताने वालों को यह जवाब देना होगा कि सिंगारम से लेकर एड़समेट्टा तक दर्जनों गांवों में किए गए नरसंहारों के वक्त वो चुप क्यों थे। क्या महेन्द्र कर्मा, नंदकुमार पटेल, वीसी शुक्ल जैसे नेताओं की मौत पर ही उन्हें लोकतंत्र की याद आती है? यह सरासर दोगलापन है।
प्रश्न - नंदकुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश पटेल को बंधक बनाकर मार डालना कहां तक उचित है?
उत्तर - इस हमले में कुछ निर्दोष लोग और कांग्रेस के कुछ ऐसे नेता जो हमारी पार्टी के दुश्मन नहीं थे, भी मारे गए थे। इस पर हमारी कमेटी ने पहले ही खेद जताया। यहां पर इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि इस हमले में जितने भी लोग हताहत हुए थे वो सभी सरकारी सशस्त्र बलों और पीएलजीए के बीच हुई भीषण गोलीबारी का शिकार हुए थे। महेन्द्र कर्मा के अलावा सिर्फ नंदकुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश पटेल को छोड़कर किसी को भी हमारे साथियों ने बंदी बनाकर नहीं मारा। बाद में इस पूरी कार्रवाई पर हमने उच्च स्तर पर समीक्षा की। हमारी समीक्षा का निष्कर्ष यह है कि महेन्द्र कर्मा जैसे कट्टर जन दुश्मन का सफाया करने में ऐतिहासिक कामयाबी प्राप्त करने के बावजूद इस हमले में कुछ गंभीर गलतियां भी हुई थीं। सबसे पहले दिनेश पटेल को मारना हमारी एक बड़ी गलती थी क्योंकि उन्होंने हमारी पार्टी या आन्दोलन के खिलाफ कभी कोई काम नहीं किया था। उनका कोई जनविरोधी रिकार्ड नहीं रहा। हमारी पीएलजीए की कमांड ने, जिसने इस हमले का नेतृत्व किया था, जल्दबाजी में यह गलत निर्णय लिया था। जहां तक नंदकुमार पटेल को मारने का सवाल है, यह बात सही है कि उन्होंने दस साल पहले गृहमंत्री रहते हुए हमारे आंदोलन का दमन करने में सक्रिय भूमिका निभाई थी। लेकिन चूंकि पिछले दस सालों से प्रदेश में कांग्रेस सत्ता से दूर है और व्यक्तिगत रूप से नंदकुमार पटेल हमारे आन्दोलन के खिलाफ प्रत्यक्ष रूप से आगे नहीं आ रहे थे, इसलिए उन्हें नहीं मारना चाहिए था। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार की शह पर ही यहां आज छत्तीसगढ़ में जनता पर भारी दमनचक्र चलाया जा रहा है और आदिवासियों के नरसंहार हो रहे हैं। फिर भी उस खास दौर में जबकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से नंदकुमार पटेल सारकिनगुड़ा, एड़समेट्टा जैसे नरसंहारों के खिलाफ अवाज उठा रहे थे, उन्हें मारने का निर्णय लेना सही नहीं था। इसके अलावा, गोलीबारी के दौरान भी कुछ अतिरिक्त सावधानियां बरतने से हताहतों की संख्या को कम किया जा सकता था। इन बिंदुओं को इस हमले में हुई गलतियों के रूप में हमने ठोस रूप से चिन्हित किया। इस समीक्षा को हम अपने कतारों के बीच ले जाकर शिक्षित कर रहे हैं ताकि भविष्य में ऐसी गलतियों की पुनरावृत्ति न हो। इसे आज हम आपके जरिए सार्वजनिक भी कर रहे हैं।
प्रश्न - क्या यह सही है कि यह हमला एक राजनीतिक साजिश का परिणाम था?
उत्तर - नहीं, यह सही नहीं है। ‘परिवर्तन यात्रा’ की जानकारी हमारी पीएलजीए को जनता से मिली थी। और उसके आधार पर उसने इस हमले की योजना बनाई। कांग्रेस और भाजपा एक दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में और खासकर चुनावी फायदा उठाने के लिए उल्टे-सीधे आरोप लगा रहे हैं। यह उनके राजनीतिक दिवालिएपन को ही दर्शाता है।
प्रश्न - आपकी हिटलिस्ट में और कौन-कौन लोग हैं?
उत्तर - यह भी सही नहीं है कि हम कोई हिटलिस्ट तैयार करके चलते हैं। यह महज मीडिया का प्रचार है। हमारे आन्दोलन का उन्मूलन करने के लक्ष्य से जो नेता या अधिकारी आक्रामकता से आगे आते हैं और जो जनता के हितों के खिलाफ काम करते हैं उन्हें हम जन दुश्मन के रूप में देखते हैं। इनमें से हम किसे और किस रूप में दण्डित करते हैं, वह समय, स्थल, संदर्भ, जनता की मांग, आवश्यकता आदि कई अन्य पहलुओं पर निर्भर करता है।
प्रश्न - अभी-अभी आपकी पार्टी द्वारा जजों को धमकियां देने की खबर भी मीडिया में आई थी। क्या यह सच है?
उत्तर - सबसे पहले आपको यह बता दूं कि छत्तीसगढ़ के जेलों में आज तीन हजार से ज्यादा आदिवासी बंद हैं। और यह संख्या आए दिन बढ़ती जा रही है। इन पर कई झूठे केस लगाए गए हैं। जमानत मिलना तो छत्तीसगढ़ की अदालतों में नामुमकिन सा हो गया। छोटे-छोटे केसों में भी जिसमें अगर सजा हो भी जाती है तो दो-तीन सालों के अन्दर छूट सकते हैं, लोगों को 7-8 साल जेल में सड़ना पड़ रहा है। जेलों में ढंग का खाना नहीं मिलता, बीमार होने पर इलाज की सुविधा नहीं। कुल मिलाकर अत्यंत अमानवीय हालत में आदिवासी जेलों के अंदर जिन्दगी और मौत से जूझ रहे हैं। गरीबी के कारण कई लोग वकील तक को नियुक्त कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। निरीह और बेसहारा आदिवासियों को कुछ जज झूठी गवाहियों से आजीवन कारावास समेत कई कठिन सजाएं सुना रहे हैं। भ्रष्टाचारी, बलात्कारी और चोर राजनेताओं को अदालतों में कभी कोई सजा नहीं होती। गरीबों को ही सजाएं मिलती हैं। यह इस न्याय व्यवस्था के वर्गीय पक्षपात को ही रेखांकित करता है। कुछ जज जो कट्टर प्रतिक्रियावादी हैं और लुटेरे शासक वर्गों के वफादार सेवक हैं, हमारे साथियों और आम आदिवासियों को जानबूझकर कड़ी सजाएं सुना रहे हैं। हम ऐसे लोगों को आगाह भर कर रहे हैं कि वे ऐसी जनविरोधी हरकतें न करें, कि एक दिन जनता की अदालत भी लगेगी जिसमें उन लोगों की सुनवाई भी होगी।
प्रश्न - पत्रकार नेमीचंद जैन की हत्या के संबंध में आपकी पार्टी का क्या कहना है?
उत्तर - जब नेमिचंद जैन की हत्या हुई थी थोड़ी भ्रम जैसी स्थिति उत्पन्न हुई थी। इस घटना को किसने और किसके निर्णय पर अंजाम दिया यह पता लगाने में काफी देरी हो गई। बाद में यह स्पष्ट हो गया कि हमारी एक निचली कमेटी के गलत आंकलन और संकीर्णतावादी निर्णय के चलते यह दुखद घटना घटी थी। हमें इस पर बेहद अफसोस है। मैं हमारी स्पेशल जोनल कमेटी कीे ओर से नेमिचंद के परिजनों और दोस्तों के प्रति गहरी संवेदना प्रकट करता हूं। हमारी पार्टी इस पर पहले ही सार्वजनिक रूप से क्षमायाचना चुकी है। इस घटना ने हमें फिर एक बार यह सिखा दिया कि हमारे कतारों में जनदिशा और वर्गदिशा पर शिक्षा का स्तर ऊपर उठाने की सख़्त जरूरत है। मैं मीडिया के जरिए फिर एक बार जनता को यह आश्वासन देता हूं कि आने वाले दिनों में ऐसी दुखद घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने पाए, हम पूरी एहतियात बरतेंगे।
प्रश्न - अन्तरराष्ट्रीय पत्रकार संघ ने पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी को माओवादियों द्वारा धमकी देने की बात कहकर आपकी निंदा की। क्या है मामला?
उत्तर - शुभ्रांशु चौधरी छत्तीसगढ़ के एक सम्मानित पत्रकार हैं। उन्होंने सीजीनेट स्वरा के जरिए जनता के मुद्दों को एक मंच देने की कोशिश की। सलवा जुडूम के दिनों में उन्होंने उसके खिलाफ लगातार लेख लिखे थे। हम उनकी बहुत इज्जत करते रहे। हाल ही में उनकी एक किताब प्रकाशित हुई थी जिसका नाम है ‘उसका नाम वासु नहीं’। इस किताब में उन्होंने कई झूठों और अर्द्धसत्यों के साथ-साथ कई तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर भी पेश किया। आज हमारे आन्दोलन के खिलाफ शासक वर्गों द्वारा चलाए जा रहे दुष्प्रचार अभियान से उनकी पुस्तक के अंश काफी हद तक मेल खा रहे थे। यह किताब इसलिए भी विवादों के घेरे में आई थी क्योंकि उसमें उन्होंने डॉक्टर बिनायक सेन, जीत गुहा नियोगी और मुक्ति गुहा नियोगी के साथ हमारे कथित संबंधों के बारे में लिखी। आप तो जानते ही हैं कि किसी जीवित व्यक्ति के साथ एक प्रतिबंधित संगठन से संबंध होने का आरोप लगाना, चाहे उसमें सच्चाई हो या न हो, उसकी सुरक्षा के लिए कितना खतरा हो सकता है। यह तो पत्रकारिता के नैतिक उसूलों के बिल्कुल खिलाफ है। हमारी पार्टी के अधीकृत बयानों में जो बताया गया और हमारे उच्च नेतृत्वकारी साथियों ने उन्हें जो बताया था उसे नजरअंदाज कर इधर-उधर से इकट्ठी की गई अधकचरी जानकारियों को पेश करना आदर्श पत्रकारिता कतई नहीं हो सकता। इसके बाद 25 मई को हुए झीरमघाटी हमले की पृष्ठभूमि में शुभ्रांशु ने एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने हमारी दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी में हुए सांगठनिक फेरबदल का जिक्र करते हुए नेतृत्व के बीच मनमुटाव होने की मनगढ़त बातें लिखी थीं। हमने इस सबका खण्डन किया और अपना विरोध दर्ज किया। जिस प्रकार वो समझते हैं कि वो अपनी मर्जी से कुछ भी लिखने को स्वतंत्र हैं उसी प्रकार हम भी उनके गलत बयानों और झूठे आरोपों का खण्डन करने के अध्किार का प्रयोग कर लेंगे न! हमने यही किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार संघ को ऐसी गलतफहमी क्यों हुई हमें नहीं पता। हमारी एसजेडसी द्वारा इस संबंध में जारी प्रेस विज्ञप्ति अभी भी पब्लिक डोमेन में मौजूद है। कोई भी पढ़कर देख सकते हैं कि उसमें कहीं कोई धमकी दी गई थी क्या।
प्रश्न - पिछले दिनों आपकी पार्टी के कई कमांडरों और कैडरों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया है। ऐसा क्यों हो रहा है?
उत्तर - क्रांतिकारी संघर्ष में, खासकर दीर्घकालीन लोकयुद्ध में कई उतार-चढ़ाव होते हैं। कई कठिन दौर आते हैं। इन सबके बीचोंबीच एक क्रांतिकारी के रूप में डटे रहने के लिए पर्याप्त सैद्धांतिक और राजनीतिक चेतना व दृढ़ संकल्प बहुत जरूरी हैं। खासकर दुश्मन द्वारा लगातार जारी हमलों और मनोवैज्ञानिक युद्ध को समझकर जनता और मा-ले-मा सिद्धांत के ऊपर अटूट विश्वास के साथ आगे बढ़ना जरूरी होता है। इसमें कमी रह जाने से व्यक्तियों का पतन होना लाजिमी है। हम समझते हैं कि हाल में दुश्मन के सामने सरेंडर कर चुके हमारे चंद साथियों में यह एक मुख्य कमी के रूप में रही थी।
भारत की क्रांति आज कई चुनौतियों का सामना करते हुए एक कठिन दौर से गुजर रही है। दुश्मन अपना सारा जोर लगाकर सैन्य हमले के साथ-साथ भारी दुष्प्रचार अभियान भी चला रहा है। कार्पोरेट मीडिया का खूब इस्तेमाल कर रहा है। जहरीली साम्राज्यवादी संस्कृति की घुसपैठ दूर-दराज के आदिवासी इलाकों तक में धड़ल्ले से हो रही है। इस सबका प्रभाव हमारे कैडरों पर भी है। इस पर हमें चौकन्ना रहकर दुश्मन की चालों को पराजित करने की जरूरत है। वैचारिक शिक्षा का स्तर समूचे कतारों में बढ़ाने की जरूरत है।
प्रश्न - वो लोग कह रहे हैं कि आपकी पार्टी के अंदर भेदभाव है और महिलाओं का शोषण किया जाता है?
उत्तर - क्रांतिकारी संघर्ष का मूल मकसद ही हर प्रकार के भेदभाव और शोषण को खत्म करना है। दशकों से जारी संघर्ष की बदौलत जनता ने इस दिशा में कई उपलब्धियां हासिल कीं। महिलाओं पर शोषण और उत्पीड़न के मामलों में उल्लेखनीय कमी आई है। ये ऐसे तथ्य हैं जिन्हें कोई झुठला नहीं सकता। सभी को पता है कि आत्मसमर्पण करने वाले पुलिस द्वारा सिखाई-पढ़ाई गई बातों को ही दुहरा रहे हैं। हमारे आन्दोलन का राजनीतिक और वैचारिक तौर पर मुकाबला करने में नाकाम शासक वर्ग ब्रिटिश वालों से विरासत में मिली ‘फूट डालो और राज करो’ की दरिंदगी भरी नीति पर चलते हुए हमारी पार्टी पर भेदभाव और महिला शोषण के झूठे आरोप गढ़ रहे हैं। इस पर कोई भी यकीन नहीं करेगा।
प्रश्न - क्या आप लोग अपने कैडरों की जबरन नसबंदी करवाते हैं?
उत्तर - जब किसी को जबरन या उसकी इच्छा के खिलाफ पार्टी में जोड़ना ही संभव नहीं है तो जबरन नसबंदी करवाने का सवाल कहां से पैदा होगा? इसलिए यह आरोप न सिर्फ बेबुनियाद व बेतुका है, बल्कि हास्यास्पद भी है।
हालांकि यह बात सच है कि हमारी पार्टी में कार्यरत अधिकांश जोड़े बच्चा पैदा नहीं करने का फैसला ले रहे हैं। मौजूदा युद्ध की परिस्थितियों और व्यावहारिक दिक्कतों को देखते हुए यह फैसला उचित भी है। कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में यह कोई नई बात भी नहीं है। शोषणविहीन व समतामूलक समाज के निर्माण का बीड़ा उठाकर निस्वार्थ रूप से काम करने वाले कामरेडों का इस तरह बच्चे पैदा नहीं करने का निर्णय लेना पार्टी में ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए भी एक उच्च आदर्श है।
प्रश्न - अबूझमाड़ में भारतीय सेना की प्रस्तावित प्रशिक्षण शाला का आप विरोध क्यों कर रहे हैं?
उत्तर - माड़ में भारतीय सेना की प्रस्तावित प्रशिक्षण शाला का विरोध हर भारतवासी को करना चाहिए। हमारी पार्टी के नेतृत्व में जारी जनयुद्ध को खत्म करने के उद्देश्य से शोषक शासक वर्गों ने आपरेशन ग्रीनहंट के नाम से भारी दमन अभियान छेड़ रखा है। इसके तहत भारतीय सेना को उतारने की योजना भी है। इसकी पूर्व तैयारियों के रूप में ‘प्रशिक्षण’ के बहाने सेना को यहां तैनात किया जा रहा है। अगर माड़ में 750 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र सेना के प्रस्तावित प्रशिक्षण शिविर के लिए आवंटित किया जाता है तो माड़ की जनता का, खासकर प्राचीनतम जनजातियों में से एक माड़िया समुदाय का खात्मा हो जाना तय है। सेना का विरोध इसलिए भी करना जरूरी है क्योंकि यहां कोई विदेशी ताकत तो नहीं है जिसके खिलाफ जंग लड़ी जाए। आज कश्मीर और पूर्वोत्तर क्षेत्रों के अनुभव हमारे सामने हैं। वहां पर सेना क्या भूमिका निभा रही है सबको पता है। इसलिए हमारी स्पेशल जोनल कमेटी देश की तमाम जनता से यह अपील करती है कि वह सरकार से यह कदम वापस लेने की मांग करे।
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