क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन (केएएमएस)
दण्डकारण्य
प्रेस विज्ञप्ति
19 फरवरी 2013
8 मार्च - अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस जिंदाबाद!
महिलाओं पर जारी हर प्रकार की हिंसा के खिलाफ संघर्ष करो!
8 मार्च - अंतरराष्ट्रीय
महिला दिवस दुनिया भर की
मेेहनतकश
व उत्पीड़ित
महिलाओं
के लिए एक
महत्वपूर्ण
दिन है। अपनी मुक्ति
के लिए संघर्ष
के पथ पर
आगे बढ़ने का संकल्प
लेने का दिन
है। लेकिन विडम्बना
है कि इस
दिवस को वो
लोग भी मना
रहे हैं जो महिलाओं
के निर्मम शोषण और बर्बर
उत्पीड़न
के लिए जिम्मेदार
हैं। वो लोग
भी आज महिलाओं
का हिमायती होने का दम
भर रहे हैं
जो महिलाओं पर जघन्य
अपराधों
में शामिल हैं। आज जरूरत
इस बात की
है कि शोषित
महिलाएं
उन सबको बेनकाब
करें और उनके
हाथ से महिला
मुक्ति
का परचम छीन
लें।
आज देश
भर में महिलाओं
पर बढ़ते अत्याचारों
की चर्चा हो रही
है। खासकर 16 दिसम्बर
2012 को दिल्ली में एक चलती
बस में एक
23 वर्षीय
युवती के साथ
हुए सामूहिक
बलात्कार
की घटना ने
सभी को झकझोर
कर रख दिया।
बाद में उस युवती
की मृत्यु हो गई।
इसके बाद कांकेर जिले की झलियामारी
आश्रमशाला
में आदिवासी
बच्चियों
के साथ हुए
अत्याचार
की खबर ने
सबको स्तब्ध कर दिया।
इन घटनाओं से हर
इंसान का खून
खौल गया। दोषियों
को कड़ी से
कड़ी सजा देने और
ऐसे अत्याचारों
की पुनरावृत्ति
को रोकने की मांग
देश के कोने-कोने में गूंज उठी।
लेकिन इस शोरगुल
के बीच एक
अहम सवाल छूट गया है
कि दरअसल महिलाओं पर अत्याचार
करने वाले कौन लोग हैं
और किन हालात
ने उन्हें ऐसा बनाया है। जाहिर
सी बात है
कि कोई भी
व्यक्ति
जन्म से ही
गुनाहगार
नहीं होता। सामाजिक,
आर्थिक
और सांस्कृतिक
परिस्थितियां
ही लोगों की मानसिकता
को ढालती हैं। अगर
हम इन परिस्थितियों
से नजर चुराकर
सिर्फ ऐसे चंद दरिंदों
को मौत के
घाट उतार भी देते
हैं तो महिलाओं
की स्थिति में कोई बुनियादी
बदलाव नहीं आने वाला है।
अब जरूरत यह तय
करने की है
कि ऐसी परिस्थितियों
को खत्म कैसे
किया जाए।
भारत एक पितृसत्तात्मक
समाज है। पितृसत्ता भारत की अर्द्धसामंती
व अद्धउपनिवेशी
व्यवस्था
का अभिन्न अंग है और
उसका पोषक भी। यहां की
संस्कृति,
राजनीति,
अर्थव्यवस्था,
मीडिया,
पुलिस, सशस्त्र
बल, प्रशासन, राज मशीनरी सबके सब पितृसत्तात्मक
विचारधारा
से बुरी तरह
ग्रस्त
हैं। पितृसत्ता
न सिर्फ
महिलाओं
के लिए पीड़ादायक
है, बल्कि वह वर्गीय
शोषण को संबल
भी प्रदान करती है। इसलिए पितृसत्ता के खिलाफ
लड़ाई समाज में मौजूद हर प्रकार
के शोषण, उत्पीड़न,
अन्याय,
असमानता
और भेदभाव के खिलाफ
जारी वर्ग संघर्ष का अविभाज्य
हिस्सा
है। अगर कोई इस
सच्चाई
को समग्रता से न
समझते हुए सिर्फ सतही तौर
पर महिलाओं की मुक्ति
की बात करता
है तो वह
बहुत बड़े भ्रम का
शिकार है।
खासकर 1990 के दशक
में साम्राज्यवादी
भूमण्डलीकरण
की नीतियां शुरू होने के बाद
से हमारे देश के
जनमानस
पर सांस्कृतिक
तौर पर भी
एक बहुत बड़ा
हमला शुरू हो गया।
पूंजीवाद
ने महिला के देह
का वस्तूकरण कर डाला
है। कार्पोरेट
मीडिया
ने, खासकर धड़ल्ले से शुरू
हुई निजी टीवी चैनलों ने महिलाओं
को बाजारू वस्तु बनाकर रख दिया
है। सौंदर्य
प्रसाधनों
के महंगे बाजार पर कब्जा
करने के लिए
बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों
ने महिलाओं के एक
हिस्से
को सौंदर्य प्रतियोगिताओं
के मोहजाल में फंसा दिया।
अश्लील
साहित्य
और फिल्मों की बाढ़
सी आ गई है। बलात्कार, हत्या, हिंसा, चोरी आदि आपराधिक प्रवृत्तियों
को महिमामंडन की हद
तक उठाकर समाज में
परोसा जा रहा
है। जाहिर सी बात
है कि इस
गंदी संस्कृति
का प्रभाव खासकर युवा पीढ़ी पर बहुत
ज्यादा
है। यही कारण है
कि समाज में
अपराध की प्रवृत्ति
पहले से कहीं
ज्यादा
बढ़ी है। गौरतलब है कि
महिलाओं
पर बलात्कार और हिंसा
के मामले तुलनात्मक रूप से पिछले
बीस बरसों में बहुत ज्यादा
बढ़े हैं। समस्या का हल
ढूंढ़ने
के लिए इस
पृष्ठभूमि
को ध्यान में रखना
बहुत जरूरी है।
आज देश
के वो राजनेता
भी महिलाओं की बदहाली
पर मगरमच्छ के आंसू
बहा रहे हैं जो
नवउदार
नीतियों
को सिर माथे
पर उठाए हुए
हैं। सच्चाई यह है
कि संसद और
विधायिका
में बैठा हर दूसरा
या तीसरा राजनेता, चाहे उसका ताल्लुक
किसी भी पार्टी
से क्यों न हो, महिलाओं
का शोषण या
उत्पीड़न
सम्बन्धी
किसी न किसी
मामले में आरोपी है। महिला
उनके लिए महज एक
खिलौना
है। सत्ता की सीढ़ियों
को चढ़ने के
लिए वो महिलाओं
का इस्तेमाल भी करते
हैं और जरूरत
पूरी होने के बाद
उनका कत्ल तक कर
देते हैं। लेकिन आज वो
लोग भी दहाड़
मार रहे हैं कि
महिलाओं
पर अत्याचार करने वालों की खैर
नहीं रहेगी। लगभग हर संसदीय
राजनीतिक
पार्टी
महिलाओं
का दमन और
भेदभाव
के लिए बदनाम
है। लेकिन वक्त की नजाकत
को देखते हुए वो
खुद को महिलाओं
का मसीहा साबित करने की
होड़ में शामिल हो चुके
हैं। ऐसे दिवालिया राजनेताओं
और उनकी पार्टियों
का पर्दाफाश करना चाहिए और उनके
दोगलेपन
का विरोध करना चाहिए।
देश की राजधानी
दिल्ली
में एक पढ़ी-लिखी युवती के साथ
हुई बर्बरता
के खिलाफ आवाजें उठना और उसे
मीडिया
का कवरेज मिलना स्वाभाविक है। लेकिन देश की
दूसरी जगहों में, खासकर जंगली इलाकों में महिलाओं पर हो
रहे अत्याचारों
से आंख बंद
कर लेना नाइंसाफी
होगा। पूरे देश में - मजदूर,
किसान, दलित, आदिवासी,
अल्पसंख्यक
हर वर्ग और
हर तबके की
महिलाओं
पर हो रहे
अत्याचार
चर्चा के केंद्र
में होने चाहिए। जिन इलाकों में क्रांतिकारी
संघर्ष
और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन चल रहे
हैं वहां की जनता
पर सरकारी दमन का भयंकर
चक्र चलाया जा रहा
है। कश्मीर, पूर्वोत्तर
क्षेत्र,
दण्डकारण्य,
बिहार, झारखण्ड,
ओड़िशा, आंध्रप्रदेश
और महाराष्ट्र
आज महिलाओं पर बर्बर
जुल्मों
के केन्द्र बने हुए हैं।
वहां पर राज
मशीनरी,
खासकर उसकी सशस्त्र
फौजें आए दिन
महिलाओं
का बलात्कार कर रही
हैं। जनता के जायज
संघर्षों
के दमन में
शोषक सरकारों
ने बलात्कार को बाकायदा
एक हथियार बना लिया है।
फर्जी मुठभेड़ों
में महिलाओं
को कत्ल किया
जा रहा है।
28 जून को हुए
सारकिनगुड़ा
नरसंहार
में महिलाओं
को जिस तरह
हत्या, बलात्कार
और अन्य हिंसा
का शिकार बनाया गया, इसका
एक उदाहरण भर है।
सरकारी
सशस्त्र
बलों को इसके
लिए पूरी छूट मिली हुई
है। सशस्त्र
बल विशेषाधिकार
कानून (आफस्पा) जैसे काले कानून उनके लिए कवच का
काम कर रहे
हैं। आश्चर्य
की बात नहीं
कि महिलाओं पर बढ़ते
अत्याचारों
की रोकथाम के लिए
लाए गए नए
विधेयक
में सरकारी सशस्त्र
बलों पर कार्रवाई
की बात ही
नहीं थी।
छत्तीसगढ़
के सरगुजा जिले में 2011 में मीना खल्खो
नामक नाबालिग
लड़की के साथ
पुलिस वालों ने सामूहिक
बलात्कार
कर हत्या की थी।
इस पर हर
तरफ विरोध हुआ तो पुलिस
के एक आला
अधिकारी
ने मृत लड़की
के चरित्र पर सवालिया
निशान लगाकर दोषी पुलिस वालों का निर्लज्जता
के साथ बचाव
किया। इसके बाद सामने आया सोनी
सोड़ी पर हुई
हिंसा का मामला।
इस पर देश
की विभिन्न जगहों में विरोध के स्वर
उठे थे। फिर भी
हमारे ‘महान गणतंत्र’
ने दंतेवाड़ा एसपी अंकित गर्ग को वीरता
पुरस्कार
से नवाजा जिसने सोनी सोड़ी
पर अपने दफ्तर
के अंदर अमानवीय
व अकथनीय
जुल्म किए थे। अगर
एक स्कूली शिक्षिका
और एक प्रभावशाली
परिवार
से आई महिला
के साथ यह
हो सकता है
तो, असंख्य आम आदिवासी
महिलाओं
के साथ आए
दिन क्या बीत रहा होगा
इसका अंदाजा लगाना मुश्किल
नहीं है। दण्डकारण्य
में, खासकर बस्तर क्षेत्र
में महिलाओं
पर हो रहे
जुल्मों
को समझने के लिए
एक आंकड़ा काफी है
जो सभ्य समाज
के रोंगटे खड़े कर देता
है। बीजापुर
के आसपास के दस
छोटे-छोटे गांवों की महिलाओं
से बातचीत करने पर 72 महिलाओं ने बयान
दिया है कि
उनके साथ पुलिस थानों या सरकारी
‘राहत’ शिविरों
में बलात्कार
हुआ था।
विडम्बना
है कि भारत
का पढ़ा-लिखा
समाज या सिविल
सोसाइटी
की नजर इन
कड़वे तथ्यों पर कम
ही जा रही
है। मीडिया की तो
बात करना ही बेकार
है क्योंकि उसे टीआरपी से मतलब
है। महिलाओं
का अश्लील चित्रण करने और पितृसत्तात्मक
संस्कृति
का प्रचार-प्रसार करने में अहम भूमिका
निभाने
वाली मीडिया बलात्कार
के मामलों को भी
अपनी टीआरपी दर बढ़ाने
का माध्यम बनाने से परहेज
नहीं करती। मीडिया में किन महिलाओं
के मामलों को उठाना
है और किनका
नहीं, इसे दरअसल पूंजी के हित
ही तय करते
हैं। एक कड़वी
सच्चाई
यह भी है
कि लगभग सभी
मीडिया
संस्थान
दिग्गज
कार्पोरेट
घरानों
के हाथ में
हैं। और वो
अपने हितों को साधने
के लिए उन्हीं
इलाकों
को खाली कराने
पर तुले हुए
हैं जहां की महिलाएं
सरकारी
दमन के दुष्चक्र
में फंसी हुई हैं।
आए दिन
आदिवासियों
को मुख्यधारा में शामिल होने का
आह्वान
करते नहीं थकने वाले शासकों के मुंह
पर हालिया झलियामारी
की घटना ने
जैसे ताला लगा दिया। माओवादियों
को शिक्षा के प्रसार
में बाधक के रूप
में चित्रित
करने वाली रमन सरकार के पास
इस बात का
जवाब नहीं था कि
यहां की आदिवासी
छात्राओं
की हिफाजत के लिए
उसने कैसी व्यवस्था
बनाई थी। खैर, झलियामारी
काण्ड तो हमारी
आंखें खोल देने वाली
घटना है। लेकिन देश भर
में, खासकर आदिवासी
क्षेत्रों
में आज शिक्षा
की हालत को
देखते हुए यह कहा
जा सकता है
कि ऐसी घटनाएं
कहीं भी और
कभी भी घट
सकती हैं। इसलिए शिक्षा प्रणाली
को दुरुस्त किए बगैर हवा
में तलवार चलाने से कोई
बुनियादी
फर्क आने वाला नहीं
है।
आज दण्डकारण्य
में महिलाएं
अपने ऊपर हो रहे
हर प्रकार के शोषण,
दमन और उत्पीड़न
के खिलाफ जमकर संघर्ष
कर रही हैं।
‘महिला की भागीदारी
के बिना क्रांति
नहीं और क्रांति
के बिना महिला
मुक्ति
नहीं’ - इस नारे
के साथ वे
नया अध्याय रच रही
हैं। पिछले एक साल
के दौरान सरकारी सशस्त्र
बलों के साथ
दो-दो हाथ
करते हुए दण्डकारण्य
और उसके इर्द-गिर्द के इलाकों
में कई वीरांगनाएं
- कामरेड्स
समीरा, अरुणा, अमीला, सगुणा, शारदा, सुमित्रा,
सनोति आदि ने अपनी
जानें कुरबान कर दीं।
इन शहीदों ने देश
की तमाम महिलाओं
के सामने आदर्श स्थापित किया है।
8 मार्च के मौके
पर हम समूची
महिलाओं
का आह्वान करते हैं कि वे
बलात्कारियों
को सजा देने
की मांग तक
खुद को सीमित
न रखें,
बल्कि उन्हें इस प्रकार
तैयार करने और उकसाने
वाली जहरीली संस्कृति
के खिलाफ लड़ें। ऐसी संस्कृति
को पालने-पोसने वाले शोषक
शासक वर्गों के खिलाफ
लड़ें। उन शासक
वर्गों
की लूटखसोट की जड़ों
के खिलाफ लड़ें जोकि
पितृसत्ता
की भी जड़े
हैं। इंसान पर इंसान
का शोषण न
हो और हर
मायने में महिला को पुरुष
के बराबर का दर्जा
मिले ऐसी व्यवस्था को कायम
करने के लिए
लड़ें।
(बय्या वेलादी)
अध्यक्षा,
क्रांतिकारी
आदिवासी
महिला
संगठन
(केएएमएस)
दण्डकारण्य