भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)
केन्द्रीय कमेटी
प्रेस विज्ञप्ति
2 जुलाई 2011
आदिवासी व दलित सांस्कृतिक कार्यकर्ता व नेता
कॉमरेड्स जीतन मराण्डी, अनिल राम, मनोज राजवर और
छत्रपति मण्डल को दी गई फांसी की सजाओं को फौरन रद्द करो!
23
जून को झारखण्ड
के गिरिडीह सत्र न्यायालय
के न्यायमूर्ति
इंद्रदेव
मिश्र ने 2007 में छिलकारी
में हुई 19 लोगों की हत्या
के मामले में जीतन
मराण्डी,
अनिल राम, मनोज राजवर और छत्रपति
मण्डल को मौत
की सजा सुनाई
है। इस फैसले
के साथ ही
राजसत्ता
ने फिर एक
बार अपने फासीवादी
चरित्र
का नंगा प्रदर्शन
किया। जीतन मराण्डी
और अन्य लोग
हमेशा खुलेआम काम करते रहे
और वे जिन
संगठनों
से जुड़े थे
वे प्रतिबंधित
भी नहीं थे।
ऐसे लोगों को एक
ऐसे मामले में जिसके साथ उनका
कोई लेना-देना नहीं था, मौत की
सजा सुनाने का साफ
मतलब यह है
कि यह एक
बदले की कार्रवाई
के तहत दी
गई सजा थी
क्योंकि
वे अपने नाच-गानों के साथ
साम्राज्यवाद-विरोधी, सामंतवाद-विरोधी, खासकर विस्थापन-विरोधी जन संघर्षों
की मजबूती से पक्षधरता
कर रहे थे।
देश में माओवादी आंदोलन का, खासकर मध्य और
पूर्वी
भारत में, दमन करने की
मंशा से शुरू
किए गए ऑपरेशन
ग्रीन हंट के तहत
केन्द्र
व राज्य
सरकारें
अत्यंत
गरीब आदिवासियों
पर बेहद घिनौने
व पाशविक
अत्याचार
कर रही हैं।
मौत की ये
सजाएं इस बात
का एक और
सबूत है। ऑपरेशन ग्रीन हंट के अत्यंत
पाशविक
स्वरूप
छत्तीसगढ़,
झारखण्ड
व ओड़िशा
के खासकर उन आदिवासी
इलाकों
में लागू किए जा रहे
हैं जहां माओवादी
आंदोलन
मजबूत है।
जीतन मराण्डी
एक जाने-माने
आदिवासी
सांस्कृतिक
कलाकार
हैं। वे सांस्कृतिक
संगठन ‘झारखण्ड
अभेन’ के नेता
हैं और अखिल
भारतीय
क्रांतिकारी
सांस्कृतिक
संघ के भी
नेता हैं। क्रांतिकारी
गीतों और संस्कृति
का प्रचार करते हुए उन्होंने देश भर में
दौरे किए। अनिल राम, मनोज राजवर और छत्रपति
मण्डल भी आदिवासी
व दलित
सांस्कृतिक
कलाकार
हैं। जीतन ने बचपन
से ही सांस्कृतिक
मामलों
में अपनी कुशलता का परिचय
दिया था। धीरे-धीरे
वे देश के
अत्युत्तम
कलाकारों
में से एक
बन गए। एक
सचेतनशील
किशोर के रूप
में वे अपने
आदिवासी
समाज की हालत
पर ध्यान दिए बिना
रह नहीं सके।
आदिवासियों
में व्याप्त
गरीबी, शोषण और उत्पीड़न
की जड़ों को
समझने के मकसद
से किया गया
सामाजिक
अध्ययन
उन्हें
क्रांतिकारी
राजनीति
की तरफ लेकर
गया। खुद वे और
उनका सांस्कृतिक
संगठन जनता की चेतना
बढ़ाने के लिए
क्रांतिकारी
राजनीति
का प्रचार करते हैं।
अपने विचारों
का खुले तौर
पर प्रचार करना अपराध नहीं है। इसके लिए
किसी को भी
दण्डित
नहीं किया जा सकता।
भारत के शासक
वर्ग किसी भी प्रकार
के विरोध को बर्दाश्त
करने को तैयार
नहीं हैं। जनता की प्राकृतिक
सम्पदाओं
और अपार खनिज
सम्पदाओं
की लूटखसोट को सुगम
बनाने वाली साम्राज्यवाद-परस्त और जन
विरोधी
नीतियों
के विरोध में उठने
वाली हर आवज
को दबाने के लिए
वे हर प्रकार
का हथकण्डा अपना रहे हैं। सच्चे
जन कलाकारों के रूप
में वे झारखण्ड
में जारी विस्थापन-विरोधी आंदोलन की अगुवाई
कर रहे थे
जहां से देश
के शासक वर्गों
द्वारा
लागू विस्थापन
की नीतियों के खिलाफ
बेहद मजबूती से प्रतिरोध
उठ रहा है।
यह बात दिन
के उजाले की तरह
साफ है कि
राजसत्ता
उन्हें
उनकी राजनीतिक
गतिविधियों
के लिए सजा
दे रही है,
न कि
किसी छिलकारी
केस के सिलसिले
में। बिहार व झारखण्ड
में हुए सामंतवाद-विरोधी संघर्षों
के दौरान जमींदारों ने अपनी
निजी सेनाओं के जरिए
किसानों,
खासकर दलितों के कत्लेआम
किए थे। किसानों को अपनी
आत्मरक्षा
में जवाबी हिंसा का रास्ता
अख्तियार
करने पर बाध्य
होना पड़ा। छिलकारी
जैसी घटनाएं इसी सिलसिले का हिस्सा
हैं। ऐसी घटनाओं की गहराई
में जाकर कारणों का पता
लगाने की बजाए
राजसत्ता
इस आड़ में
जन संगठनों पर फर्जी
मुकदमे
दायर कर उनका
गला घोंटने की कोशिश
कर रही है।
पहले उन्होंने
2007 में जीतन मराण्डी
पर रांची में राजभवन
के सामने राजनीतिक कैदियों
की रिहाई के सवाल
को लेकर भड़काऊ
भाषण देने के आरोप
में राजद्रोह
का एक मामला
दायर किया था। तबसे उन्हें
जेल में डालकर झूठे मामलों
में फंसाते हुए प्रताड़ित किया जा रहा
है। उसके पहले भी उन्हें
कई बार गिरफ्तार
किया गया था और
उनके साथ कई बार
बुरी तरह मारपीट की गई।
आखिर में इन तमाम
साजिशों
की पराकाष्ठा के रूप
में उन्हें मौत की सजा
सुनाकर
उनकी आवाज हमेशा के लिए
दबाने की कोशिश
की जा रही
है। इस मामले
में राजसत्ता
की बेशर्मी का आलम
यह है कि
उन पर पीरटांड
और तीसरी पुलिस थानों के ऐसे
मामले भी दायर
किए गए हैं
जो दरअसल उस समय
हुए थे जब
वे जेल में
बंद थे!
हमारा देश दो सौ
सालों के लम्बे
अरसे तक अंग्रेजों
के उपनिवेशी शासन में रहा। फलस्वरूप
यह कई आदिवासी
विद्रोहों
का गवाह भी
रहा। ब्रिटिश
साम्राज्यवाद
ने आधुनिक हथियारों
के सहारे पाशविक ताकत का प्रयोग
कर इन विद्रोहों
को कुचलने की कोशिश
की। विद्रोहों
के नायकों को फांसी
देना उनका एक प्रचलित
दमनात्मक
दावपेंच
था। उपनिवेशवादी
शासकों
की दमनकारी मशीनरी के वारिसों
के रूप में
भारत के दलाल
शासक वर्ग उन्हीं के नक्शेकदम
पर चल रहे
हैं। कॉमरेड्स
भूमैया
और किष्टागौड़
‘आजाद’ भारत के पहले
क्रांतिकारी
किसान कार्यकर्ता
थे जिन्हें फांसी पर चढ़ाया
गया था। उसके बाद
भी कई क्रांतिकारी
कार्यकर्ताओं,
खासकर बिहार (जिसमें आज का
झारखण्ड
भी शामिल था) के
क्रांतिकारी
किसान कार्यकर्ताओं
को फर्जी मामलों में फंसाकर मौत की सजाएं
सुनाई गईं। जन वकील
और मानवाधिकार
संगठनों
के नेता के.जी. कन्नबीरन, पत्तिपाटी
जैसे शख़्सों ने अपने
संगठनों
के जरिए अदालतों
के अंदर और
बाहर भी न
सिर्फ मौत की सजाओं
के खिलाफ संघर्ष किया, बल्कि मौत की सजा
को ही पूरी
तरह रद्द करने की मांग
से व्यापक आंदोलनों
का निर्माण किया। इस पृष्ठभूमि
में कि राजसत्ता
आदिवासी
बस्तियों
में आए दिन
कत्लेआम,
फर्जी मुठभेड़ और अत्याचारों
को जारी रखते
हुए ही फांसी
की सजा जैसी
फासीवादी
कार्रवाइयों
पर भी उतारू
है, इस संघर्ष
को और भी
व्यापक
आधार पर तेज
करने की जरूरत
है। नारायणपटना
संघर्ष
से जुड़े हुए
नेता सिंगन्ना
को पुलिस ने सीधे
तौर पर गोली
मार दी। लालगढ़ संघर्ष के लोकनायक
लालमोहन
टुडू की पुलिस
ने फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी।
अब झारखण्ड में जीतन मराण्डी
को फांसी की सजा
सुनाई गई। सामंतवाद, दलाल नौकरशाह
पूंजीवाद
और साम्राज्यवाद
के खिलाफ जारी जन
आंदोलनों
से उभर रहे
नेताओं
को कत्ल करने
की साजिश के तहत
ही यह सब
हो रहा है।
उनकी कोशिश यह है
कि जन संघर्षों
को नेतृत्वविहीन
कर आदिवासी इलाकों से प्राकृतिक
सम्पदाओं
को बेरोकटोक लूटने के रास्ते
में मौजूद तमाम बाधाओं को खत्म
किया जाए।
जैसा कि फांसी
की सजा सुनाने
के तुरंत बाद जीतन
के साथ-साथ
अदालत में मौजूद जनता ने
गीत गाकर सुनाया, ‘वह सुबह
कभी तो आएगी’
जब राजसत्ता द्वारा लागू इन तमाम
फासीवादी
कार्रवाइयों
को जन उभारों
से खत्म किया
जाएगा।
जेलखाने
और फांसी के तख़्त
जनता के सच्चे
नेताओं
के क्रांतिकारी
जज़्बे
को खत्म नहीं
कर सकेंगे। वे आखिर
तक लड़ते रहेंगे।
भाकपा (माओवादी)
यह मांग करती
है कि जीतन
मराण्डी,
अनिल राम, मनोज राजवर और छत्रपति
मण्डल को दी
गई मौत की
सजाओं को तुरंत
रद्द किया जाए। हम सभी
जनवादी,
मानवाधिकार
संगठनों,
राजनीतिक
बंदियों
की रिहाई के लिए
संघर्षरत
संगठनों,
खासकर कला व साहित्य
से जुड़े संगठनों
तथा आदिवासी
सांस्कृतिक
संगठनों
से अपील करते
हैं कि वे
इन मौत की
सजाओं को समाप्त
करने, इन जन
कलाकारों
की रिहाई के लिए
व्यापक
आंदोलनों
का निर्माण करें। मौत की सजा
को पूरी तरह
रद्द करने की मांग
के साथ चलने
वाले आंदोलन के रूप
में इसे व्यापक आधार पर आगे
बढ़ाएं।
(अभय)
प्रवक्ता
केन्द्रीय कमेटी
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)