भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)
केन्द्रीय कमेटी
प्रेस विज्ञप्ति
22 जून 2011
न सिर्फ अपनी जमीनों को, बल्कि अपने बच्चों का भविष्य भी छीन लेने वाली
पोस्को परियोजना का बहादुराना प्रतिरोध कर रहे
पोस्को-विरोधी आंदोलनकारियों को लाल-लाल सलाम!
न दलाल व तानाशाह शासक नवीन पटनायक को और
न ही सोनिया-मनमोहन-जयराम रमेश-चिदम्बरम को,
बल्कि सिर्फ जनता को यह तय करने का अधिकार है कि
हमें किस किस्म की परियोजनाएं चाहिए!
पोस्को विरोधी आंदोलन के समर्थन में
देश भर में व्यापक जन आंदोलनों का निर्माण करें!
भारत की जनता
पिछले एक सप्ताह
से ओडिशा के जगतसिंहपुर
जिले में जारी ‘पोस्को-विरोधी आंदोलन’ का साक्षी
रही है जोकि
आधुनिक
भारत के इतिहास
में किसी साम्राज्यवादी
बहुराष्ट्रीय
कम्पनी
की परियोजना के खिलाफ
जारी एक बेहद
दृढ़तापूर्ण
व उम्दा
संघर्ष
है। 52 हजार करोड़ रुपए की इस
परियोजना
को, जिसके बारे में
‘सबसे बड़ा विदेशी प्रत्यक्ष
पूंजीनिवेश’
कहकर ढिंढ़ोरा
पीटा जा रहा
है, हर हाल
में रोकने के मजबूत
इरादों
के साथ संघर्षरत
ओड़िशा की जनता
को भाकपा (माओवादी) लाल अभिनंदन पेश करती है
और अपना पूरा
समर्थन
प्रकट करती है।
15
मई 2007 को केन्द्र
सरकार ने पोस्को
परियोजना
को आनन-फानन
में अनुमति मंजूर की। इसके खिलाफ
जनता की ओर
सें बड़े पैमाने पर सामने
आए विरोध को नजरअंदाज
करते हुए मनमोहन ने खुद
दक्षिण
कोरिया
सरकार को यह
आश्वासन
दिया कि उसकी
सरकार इस परियोजना
के निर्माण में पूरा सहयोग
करेगी।
वन अधिकार कानून के नियम-कायदों तथा 2009 में जारी वन
और पर्यावरण मंत्रालय
के मार्गदर्शक
नियमों
का ओड़िशा सरकार के साथ-साथ खुद उस
मंत्रालय
ने भी खुलेआम
उल्लंघन
किया। दरअसल 5 अगस्त 2010 को इस
परियोजना
को रोकने हेतु इस
मंत्रालय
ने जो आदेश
जारी किया, उसका यही आधार था।
राज्य सरकार बार-बार इस
बात से इनकार
करती आ रही
थी कि इस
इलाके में आदिवासी निवासरत
हैं। लेकिन सक्सेना
कमेटी और मीना
गुप्ता
कमेटि ने अपनी
तथ्यान्वेशण
रिपोर्टों
में इस बात
के अकाट्य सबूत पेश किए थे
कि प्रस्तावित
इलाके में परम्परागत वननिवासी
मौजूद हैं जो अपने
जीवन यापन के लिए
परम्परागत
रूप से जंगलों
पर ही निर्भर
हैं। उन्होंने
अपनी रिपोर्टों
में यह आरोप
लगाया कि राज्य
सरकार मौजूदा वन अधिकारों
पर अमल नहीं
कर रही है।
धिंकिया
और गोविंदपुर गांवों के 65 प्रतिशत से ज्यादा
लोगों ने अपनी
पल्ली सभााओं (ग्रामसभाओं)
में यह मत
प्रकट करते हुए प्रस्ताव किया कि वे
किसी भी प्रकार
के जमीन-अधिग्रहण
के खिलाफ हैं। लेकिन
राज्य सरकार ने बेशर्मी
के साथ इन
तथ्यों
पर परदा डालकर
वन और पर्यावरण
मंत्रालय
को दी गई
अपनी रिपोर्ट
में झूठ बताया कि उपरोक्त
प्रस्ताव
ही गलत थे।
इस तरह के
कई सबूत हैं
जिसमें
कि राज्य सरकार ने झूठों
का सहारा लेकर सच्चाइयों
और आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर पेश किया हो।
मीना गुप्ता कमेटी की सिफारिशों
के आधार पर
वन सलाहकार कमेटी ने वन
अनुमति
को वापस लेने
की सिफारिश की। लेकिन इन सबका
उल्लंघन
करते हुए 2 मई को
जयराम रमेश ने इस
परियोजना
को पर्यावरणीय
अनुमति
दे डाली। इसके तुरंत
बाद राज्य सरकार ने जमीन
अधिग्रहण
के लिए जून
महीने में पुलिस बलों को
उतार दिया है।
इस पूरे
दौर में जनता ने
इस 12 मिलियन टन क्षमता
वाले इस्पात संयंत्र
के निर्माण के खिलाफ,
सुंदरगढ़
जिले में इस कम्पनी
के लिए प्रस्तावित
लोहा खदान के खिलाफ
और परादीप बंदरगाह
से 12 कि.मी.
दूर पर व
प्रस्तावित
स्टील कारखाने
के नजदीक पोस्को द्वारा प्रस्तावित
निजी बंदरगाह
के निर्माण के खिलाफ
संघर्ष
का परचम बुलंद
कर जमीन-अधिग्रहण
की हर कोशिश
का विरोध किया है।
सच्चाई
यह है कि
केन्द्र
व राज्य
सरकार दोनों ने इस
साजिश को अंजाम
दिया। जयराम रमेश ने यह
कहकर कि ‘पर्यावरण सम्बन्धी
अनुमति
देने का यह
मतलब नहीं है कि
जमीन का बलपूर्वक
अधिग्रहण
किया जाए’ शिगूफा जो छोड़ा
है और इस
जन आंदोलन के समर्थन
के नाम पर
कांग्रेसियों
के गोविंदपुर की ओर
निकल पड़ना महज धोखा है।
जयराम रमेश ओड़िशा सरकार को यह
हिदायत
दे रहा है
कि जमीनों का अधिग्रहण
‘लोकतांत्रिक
तरीके’ से किया
जाए! हो सकता
है कि उसके
मार्के
के ‘लेकतंत्र’ में झूठ बोलना
और बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों
से दलालखोरी करना भी शामिल
हों! लेकिन इस तरह
की परियोजनाओं
का विरोध करने वाली
जनता को (जिसमें आदिवासियों
की बहुसंख्या है) जिस ‘लोकतंत्र’
का स्वाद चखाया जाता है
उसमें सिर्फ फर्जी मुठभेड़ें,
यातनाएं
और बिना किसी
सुनवाई
के सालों साल जेलों
में बंद करना शामिल
हैं।
केन्द्रीय
गृह सचिव जी.के.
पिल्लई
ने हाल ही
में दिए एक साक्षात्कार
में कहा है कि
योजना आयोग के वेबसाइट
में जाकर लोगों को वहां
लगी तस्वीरों
को देखना चाहिए कि पिछड़े
इलाकों
(खासकर ‘माओवादी’
इलाकों)
में सड़कों, आंगनवाड़ी
और शाला भवनों
के निर्माण के साथ
‘विकास’ कितनी तेजी से हो
रहा है। उसने यह
भी जोड़ा है
कि ‘तस्वीरें अपने आप सच्चाई
को बयां करती
हैं’। क्या
जी.के. पिल्लई
गिरोह ने उन
तस्वीरों
को देखा है
जिसमें
बच्चों,
महिलाओं
और बूढ़ों को एक
के पीछे एक
घेरा बनाकर कतारों में लेटे हुए
देखा जा सकता
है जो अपनी
जमीनों
को नवीन पटनायक
के ‘लाइसेंसी हत्यारों’
के दमनपूर्वक सहयोग से बहुराष्ट्रीय
दैत्य द्वारा हड़पने की कोशिशों
को रोक रहे
थे? क्या वे
तस्वीरें
किसी सच्चाई को बयां
कर रही हैं?
आखिर हजारों आंदोलनकारी
पोस्को
के प्रवेश को रोकने
के लिए क्यों
अपनी जान को दांव
पर लगाकर लड़ रहे
हैं? जब भी
दलाल शासकों ने नव
उपनिवेशवादियों
के हाथों देश की
सम्पदाएं
बेचने की कोशिश
की, तो सरकारी
नीतियों
के खिलाफ लड़ने वालों
की संख्या इतनी ज्यादा क्यों बढ़ती जा रही
है? क्या ये
आंकड़े किसी सच्चाई को बयां
कर रहे हैं?
सिंगूर, नंदीग्राम,
लालगढ़, नारायणपटना,
भट्टा-परसौल, श्रीकाकुलम,
बस्तर और लोहरदग्गा
में ही नहीं,
बल्कि देश के हर
राज्य में, हर गांव
में और कस्बे
में क्यों इतने सारे जन आंदोलनों
का अनवरत सिलसिला चल पड़ा
है जिसमें जनता की व्यापक
भागीदारी
है? हाल के
दिनों में भड़क रहे
इन जन आंदोलनों
की लम्बी फेहरिश्त क्या किसी सच्चाई को बयां
कर रही है?
सिंगूर की तपसि
मलिक से लेकर
जैतापुर
में तबरेज़ तक और
कलिंगनगर
के 13 आदिवासियों
से लेकर सोम्पेटा,
काकरापल्ली
के किसानों तक ऐसे
आंदोलनों
में जान गंवाने वाले जन नेताओं
और आंदोलनकारियों
की कुरबानियां
तथा उनकी अंतिमयात्राओं
में हजारों लोगों के हजूम
का निकल पड़ना
क्या किसी सच्चाई को बयां
कर रहे हैं?
धराशायी
हुए इन शहीदों
का स्थान खामोशी से पर
दृढ़तापूर्वक
पूरा करते हुए, ‘जल-जंगल-जमीन हमारा है’ का नारा
बुलंद करते हुए क्यों हजारों लोग संघर्ष के कतारों
में भर्ती होने लगे हैं?
उन लोगों
के लिए संदेश
साफ है जो
सुनना चाहते हैं। देश का अत्यधिक
बहुमत मुनाफा-केन्द्रित
व साम्राज्यवाद-परस्त विकास के नमूने
को ठुकराकर विकास के उस
नमूने को अपना
रहा है जो
जन-केन्द्रित और जन-अनुकूल हो। शासक वर्गों
की ओर से
भी संदेश साफ है।
जनता को और
देश को चाहे
जितना भी नुकसान
हो, साम्राज्यवादियों
के मार्गदर्शन
में और उनके
पूरे सहयोग से दलाल
शासक अपनी लूटखसोट
और शोषण को
जारी ही रखेंगे।
यह ‘नुकसान’ न सिर्फ
‘भौतिक रूप से’ जमीन,
पानी, हवा, समुद्र, बंदरगाह,
प्राकृतिक
संसाधन,
जंगल, पर्यावरण,
दुर्लभ
वृक्ष, वन्यप्राणी,
प्राचीन
सभ्यताएं,
सम्पत्तियां,
शरीर के अंग
और प्राणों को गंवाने
के रूप में
रहेगा, बल्कि आत्मसम्मान,
संप्रभुता,
आजादी, स्वाधीनता,
अभिमान
आदि मूल्यों
को खोने के
रूप में भी रहेगा
जो हमें खुद
को इंसान के रूप
में पहचानने
के लिए बेहद
जरूरी हैं।
जगतसिंहपुर
की जनता एक
सीधा-सादा सवाल पूछ रही है
- हम इन सबको
क्यों गंवाएं? दरअसल वो कौन
होते हैं जो यह
तय कर रहे
हैं कि हम
इन सबको गंवा
दें? वो एक
सच्चाई
को बयां कर
रहे हैं जिसकी जानकारी सभी को जरूर
होनी चाहिए - हमें क्या चाहिए इसे तय करने
का अधिकार हम जनता
को ही होगा।
वो शासक वर्गों
को सीधी चुनौती
दे रहे हैं
- जनता के गुस्से
का मुकाबला करने तैयार हो जाएं
क्योंकि
हम घुटने टेकना नहीं चाहेंगे।
वो एक नियमबद्ध
तथ्य की घोषणा
कर रहे हैं
- भारत की जनता
गुलामों
सी जिंदगी में धकेले जाने का
विरोध कर रही
है।
दरअसल तस्वीरें
भी कई बार
सच्चाई
को बयां नहीं
कर सकतीं! मसलन, ‘माओवादी
इलाकों’
में निर्मित
शाला भवनों की तस्वीरें
यह सच बयां
नहीं करेंगी कि उनका
निर्माण
पूरा होते ही उन
पर कब्जा करने के
लिए सरकारी सशस्त्र
बल ताक में
बैठे हुए हैं। लेकिन
सालों से, लाखों लोगों का अपना
सब कुछ दांव
पर लगाकर आंदोलन करना एक सच
को जरूर बयां
करता है। एक ऐसा
सच जिसे फिलहाल
हमारे देश में दूसरे
किसी भी सच
से ज्यादा बोलने और सुनने
की जरूरत है। एक
ऐसा सच जोकि
हमारे देश का भविष्य
तय करने वाला
है। इसी सच को
19वीं और 20वीं सदियों
में ब्रितानी
उपनिवेशवादियों
के खिलाफ लड़े गए
अनगिनत
किसानों
और आदिवासियों
की बगावतों और संघर्षों
(जिनमें
ज्यादातर
सशस्त्र
थे) ने भी
बयां किया था। एक ऐसा
सच जो सभी
किस्म के उपनिवेशी
व नव
उपनिवेशी
शोषण व उत्पीड़न
को खत्म कर
देना चाहता है। अंग्रेजों ने इस
सच को न देखने और न
सुनने के लिए
अपनी आंखें और कान
बंद कर रखे
थे और पाशविक
बल के सहारे
उसका दमन करना चाहा
था। भारत के वर्तमान
शासक वर्ग भी उन्हीं
की राह पर
चल रहे हैं।
अगर वे ‘जनता पर
अपने अन्यायपूर्ण
युद्धों’
को इसी तरह
जारी रखेंगे तो यह
रास्ता
उन्हें
भी कब्रगाह में ही ले
जाएगा जैसाकि उनके साम्राज्यवादी
आकाओं के साथ
हुआ था। ऑपरेशन ग्रीन हंट के नाम
से माओवादी इलाकों में पुलिस व अर्धसैनिक
बलों को (अब सेना
को भी) उतारना,
या एक भट्टा-परसौल में या फिर
एक गोविंदपुर में पुलिस व अर्धसैनिक
बलों को उतारना
- इन सबका मकसद न्यायपूर्ण
जन संघर्षों को कुचलना
ही है। दिसम्बर
2010 से लेकर अभी तक नवीन
पटनायक
सरकार द्वारा 25
से ज्यादा खदान-विरोधी कार्यकर्ताओं
की फर्जी मुठभेड़ों में हत्या करना और
ओड़िशा व छत्तीसगढ़
में प्रस्तावित
माओवाद-विरोधी दमनकारी
कार्रवाइयों
को लेकर नवीन
पटनायक
व रमनसिंह
के साथ पी.
चिदम्बरम
की बैठक इस
बात को दर्शाते
हैं कि केन्द्र
व राज्य
सरकारें
जन आंदोलनों का किस
तरह दमन करना चाहती
हैं।
जबरिया जमीन अधिग्रहण
और देश के
प्राकृतिक
संसाधनों
की लूटखसोट के खिलाफ
जारी कई अन्य
संघर्षों
के साथ-साथ
पोस्को-विरोधी आंदोलन यह फैसला
कर सकने की
क्षमता
रखता है कि
देश में निर्बाध रूप से आ रहे तमाम दूसरे
विदेशी
पूंजीनिवेशों
का भविष्य क्या रहेगा। भारत की कम्युनिस्ट
पार्टी
(माओवादी)
की केन्द्रीय कमेटी ओड़िशा की जनता
को अपने संघर्ष
में दृढ़तापूर्वक
आगे बढ़ने को प्रोत्साहित
करता है और
समूचे देशवासियों
का यह आह्वान
करता है कि
वे इस बहादुर
जनता के समर्थन
में संघर्षों
का निर्माण करें। जगतसिंहपुर
की जनता को
चाहिए कि वह
विभिन्न
राजनीतिक
पार्टियों
और नागरिक समाजों से उसको
मिल रहे समर्थन को स्वीकारते
हुए ही तमाम
संभावित
साजिशों
व षड़यंत्रों
के प्रति सावधान रहे क्योंकि उनमें से कुछ,
खासकर संसदीय राजनीतिक
पार्टियां
इस संघर्ष को गुमराह
कर सकती हैं।
इस बात को
नहीं भुलाना चाहिए कि ये
तमाम राजनीतिक
पार्टियां
उन जगहों पर जहां
वे सत्ता में होती
हैं या सत्ता
में भागीदारी
लेती हैं, इसी प्रकार की साम्राज्यवाद-परस्त नीतियों
पर अमल कर
रही हैं। जब वे
विपक्ष
में होती हैं तब भी
वे इन नीतियों
को परोक्ष समर्थन कर रही
हैं।
जगतसिंहपुर
जाकर पोस्को-विरोधी आंदोलन का समर्थन
करने के अलावा
जहां-तहां हर राज्य
में उनके समर्थन में प्रचार व आंदोलन
के विभिन्न स्वरूपों
को अपनाने की जरूरत
है। भारत की जनता
और विश्व जनता से
भाकपा (माओवादी)
की अपील है
कि वे इस
बहादुराना
जन संघर्ष के प्रति
व्यापक
समर्थन
प्रकट करें। आज फौरी
जरूरत इस बात
की है कि
ऐसे तमाम संघर्षों
के बीच एक
व्यापक
आधार पर एकजुटता
कायम कर न
सिर्फ पोस्को जैसी परियोजनाओं
को रद्द करने
की मांग से
बल्कि पूरे देश से सभी
किस्म के साम्राज्यवादी
शोषण, नियंत्रण
और उत्पीड़न का अंत
करने के लक्ष्य
से लड़ने वाले
सांझा मंच खड़ा किया
जाए।
«
पोस्को के लिए जारी जमीन अधिग्रहण को तत्काल रोक दिया जाए!
«
जगतसिंहपुर जिले से पुलिस व अर्धसैनिक बलों को तत्काल वापस बुलाया जाए! जनता पर दबाव बनाने वाले हर किस्म के हथकण्डों को रोका जाए!
«
देश की प्राकृतिक सम्पदाओं, जिन पर सिर्फ और सिर्फ जनता का जायज हक है, की लूटखसोट की खुली छूट देकर देश को बेच डालने हेतु बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ किए गए तमाम एमओयू रद्द किया जाए!
(अभय)
केन्द्रीय कमेटी प्रवक्ता
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)